दिल के खुश रखने को गलिब ये खयाल अच्छा है
बहर गर बहर ना होता तो बीयांबां होता
हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
कागज़ी है पैरहन हर पैकर ए तस्वीर का
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर ए नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
कागज़ी है पैरहन हर पैकर ए तस्वीर का
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर ए नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
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