Monday, May 18, 2009

कांग्रेस की जीत या भाजपा की हार

कई बार हमारी जीत का कारण हमारी शक्ती नहीं, प्रतिद्वंदी की दुर्बलता होती है। पिछले पाँच वषों में कांग्रेस ने कोई भी ऐसा उल्लक्ष्य कार्य नहीं किया जिससे उसे सत्ता में वापस आने का (वो भी इतनी भारी जीत के साथ) अधिकार मिलता। कांग्रेस का सौभाग्य तो उबासियाँ ले रहा था पर भाजपा-भाग्य की असमय नींद ने उसे उठ बैठने को विवश कर दिया। अब राजनैतिक पंङित इसे चाहे राहुल गाँधी का जादू कहें मैं कांग्रेस की इस जीत का श्रेय भाजपा के उन बाज़ीगरों को दूँगी जिनकी अन्अभ्यस्त कलाबाज़ियों के चलते पार्टी को ये दिन देखना पङा। अन्दरूनी कलह के चलते भाजपा ना सिर्फ ये चुनाव हारी है साथ ही उसने अटल बिहारी वाजपेयी के मकनातीस व्यक्तित्व से प्रभावित वोट-बैंक को भी खो दिया है। आज भाजपा फिर उसी रास्ते पे खङी है जहाँ से वो चली थी। भाजपा को २५ साल लग गये साम्प्रदायिक पार्टी तमगे से बाहर निकलने के प्रयास में। आर्थिक मंदी और देश में ढुलमुल सुरक्षा के चलते ये प्रयास शायद सफल भी हो जाता पर कुछ गलत शब्द और बचकाना चुनावी अभियान नें सब गुङ-गोबर कर दिया।इन सबके बावजूद पीलीभीत में जो हुआ, उससे जो रही सही कसर बची थी वो नरेन्द्र मोदी ने पूरी कर दी। अडवानी के प्रधान-मंत्री पद की घोषणा के बाद भी पार्टी में दूसरी पीङी के नेताओं के नाम भावी अगुवाओं की फेहरिस्त में उभरते रहे। इससे जनता में अडवानी की श्रेष्ठता के बारे मे शंका बनी रही। जिसके पार्टी नेता ही उसे अपना अगुवा ना माने, आम जनता भला उसे कैसे अपनी अगुवाई करने दे। ऐसे में आम आदमी के पास मनमोहन सिंह के अलावा क्या चारा रहता है? नरेन्द्र मोदी चतुर राजनेता हैं पर उनका प्रभाव अभी गुजरात से गुज़रने में समय लगायेगा। अभी से मोदी का आडवानी के उत्तराधिकारी के रूप में उछलना निरा बालवत हठ से ज़्यादा और कुछ नहीं लगता। फिर हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि राजनाथ सिंह, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे दिग्गज साधु नही है जो पार्टी-अगुवा की महत्वकांक्षा से परे हों।वरुण गाँधी की जीत भी कहीं ना कहीं पार्टी की हार का कारण बनी है। वरुण एक सीट तो जीत गये, पर ये एक सीट भाजपा को अगर अपनी पहली दो सीटों की याद दिला दे तो वो सार्थक हो जायेगी। पीलीभीत का खामियाज़ा पूरे देश के भाजपा समर्थकों को भरना पङेगा।
तिस पर राज्यों में ढीले चुनावी प्रचार भी भाजपा को कमज़ोर करते गये। राज्यों में जहाँ हर पार्टी ने जाति-गत राजनीति का खेल खूब जम कर खेला और जाति-गत मुद्दों के चलते फायदा भी कमाया, भाजपा बङे-बङे राष्ट्रीय मुद्दों में ही उलझी रही। राजस्थान में जहाँ पार्टी को स्थानीय मुश्किलों को उभारना चाहिये था वहीं वो जसवंत सिंह के पाकिस्तान के साथ रिश्तों के पापङ सेंक रही थी।
मध्य प्रदेश और गुजरात में भी स्थिति ऐसी ही थी। नतीजा ये हुआ कि भाजपा के हाथ सिर्फ पापङ आया, व्यन्जन तो कांग्रेस खा गई।पिछली बार जब कांग्रेस सत्तारूढ हुई थी तो भाजपा नें ये कहा था कि वो २००९ के चुनावों की तैयारियाँ करेगी। अब ये चुनाव भी बीत गये, भाजपा अगर आज से ही २०१४ के चुनावों की तैयारियों में जुट जाये तो बेहतर है वर्ना शायद अगली बार के बाद उसे तैयारी का भी समय ना मिले।

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