
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को गलिब ये खयाल अच्छा है

घर हमारा जो ना रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर ना होता तो बीयांबां होता

हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है

ये ना थी हमारी किस्मत कि विसाल ए यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

नख्श फरियादी है किसकी शोख ये तहरीर का
कागज़ी है पैरहन हर पैकर ए तस्वीर का

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर ए नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

वफा कैसी कहां का इश्क जब सर फोडना ठहरा
तो फिर ऐ संग ए दिल तेरा ही संग ए आस्ताँ क्यों हो

है अब इस मामूरे में कहत-ऍ-ग़म-ऍ-उल्फ़त असद
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

तुम जानो तुम्हे गैर से जो रस्मो राह हो
मुझको भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो

रगों में दौडते फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहु क्या है
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